Quantcast
Channel: इधर उधर की »हिन्दी
Viewing all articles
Browse latest Browse all 11

सवाल बहुवचन संबोधन में अनुस्वार का

0
0

मित्रो, मैं आज बहुत समय बाद लिख रहा हूँ और आशा है कि आगे से नियमित लिखूँगा।

ऊपर लिखे इस वाक्य में आप को कुछ अटपटा लगा? मुझे यकीन है कि कुछ लोगों को “मित्रो” शब्द आम भाषा से विपरीत लगा होगा, क्योंकि उन्हें संबोधन में भी “मित्रों” लिखने कहने की आदत है। दरअसल यह लेख इसी प्रश्न का उत्तर देने की एक कोशिश है कि संबोधन बहुवचन में “मित्रो” कहा जाना चाहिए या “मित्रों”, “भाइयो-बहनो” कहा जाना चाहिए या “भाइयों-बहनों”। हाल में इस विषय पर बर्ग वार्ता के अनुराग जी से फेसबुक पर लंबा संवाद हुआ, और अपने इस लेख में उन्होंने अपनी बात को विस्तार पूर्वक भी रखा। फेसबुक के मुकाबले ब्लॉग पर लेख रखना अच्छा है, और इसके लिए मैं उनको धन्यवाद देना चाहता हूँ। फेसबुक पर लिखा हुआ आम तौर पर कुछ दिनों में खो जाता है, और हमारी पहुँच से तो क्या, गूगल की पहुँच से भी बाहर हो जाता है। इसके अतिरिक्त ब्लॉग पर links और images देने में भी अधिक स्वतंत्रता रहती है।

तो सब से पहले मैं इस विषय पर अपने मत को स्पष्ट कर दूँ, फिर अनुराग जी के कुछ प्रश्नों का उत्तर देने की कोशिश करूँगा। बहुवचन संबोधन कारक (vocative case) में अनुस्वार का प्रयोग नहीं होता, यह हिंदी व्याकरण का नियम है। यह आग्रह नहीं है, नियम है। यदि लोगों का एक बहुत बड़ा समूह इस नियम को नहीं समझता या इसका पालन नहीं करता, उसका यह अर्थ नहीं कि नियम नहीं है या ग़लत है। शायद धीरे धीरे इस नियम का उल्लंघन औपचारिक भाषा में स्वीकृत भी हो जाए और शायद व्याकरण से इस नियम को निकाल भी दिया जाए, पर आज यह नियम व्याकरण में है। यह नियम किसी भी रूप में भाषा के विरुद्ध नहीं है, और न ही किसी ने किसी पर कृत्रिम रूप से थोपा है। यह नियम भाषा से व्याकरण में गया है, न कि व्याकरण से भाषा में थोपने की कोशिश की गई है। पर हाँ, जैसे अन्य कई नियम आम भाषा में अनदेखे होने पर कोई प्रलय नहीं आ जाती, वैसे ही इस नियम के पालन न होने से कोई प्रलय नहीं आएगी। कुछ शुद्धतावादियों को इस नियम का उल्लंघन खलता हो तो खले।

ध्यान रहे, जब तृतीय पुरुष बहुवचन का प्रयोग संबोधन के बिना होता है, तो अनुस्वार का प्रयोग होता है। अनुस्वार का प्रयोग केवल तब नहीं होता जब संबोधन के रूप में बहुवचन का प्रयोग हो। उदाहरणतः

बच्चो, इन दोनों बच्चों को भी अपने साथ खेलने दो।
दोस्तो, मुझे तुम सब दोस्तों से कुछ कहना है
लोगो, हम लोगों की बात भी तो सुनो

इसे अनुस्वार को हटाने की प्रक्रिया न समझें, अपितु शब्द का संबोधन रूप समझें।

अब अनुराग जी के कुछ तर्कों का उत्तर देना चाहूँगा।

1) 19 वीं शताब्दी की हिन्दी और हिन्दुस्तानी व्याकरण की कुछ पुस्तकों में बहुवचन सम्बोधन के अनुस्वाररहित होने की बात कही गई है। मतलब यह कि किसी को सम्बोधित करते समय लोगों की जगह लोगो, माँओं की जगह माँओ, कूपों की जगह कूपो, देवों की जगह देवो के प्रयोग का आग्रह है।

मेरे विचार में यह नियम इक्कीसवीं शताब्दी में भी उतना ही सही है जितना 19वीं शताब्दी में था। यह नियम केवल पुरानी पुस्तकों में नहीं है, पर आज भी इसका उतना ही पालन होता है। इसके लिए मैंने गूगल बुक्स पर “संबोधन कारक” की खोज की। कुछ नवीनतम व्याकरण पुस्तकों के उदाहरण देखिए।

नवीन हिंदी व्यावहारिक व्याकरण तथा रचना, भाग 8, पृष्ठ 66: इस पृष्ठ पर दी गई तालिकाओं में बहुवचन के अंतर्गत संबोधन रूप को देखें।

नवशती हिंदी व्याकरण, पृष्ठ 201 – दूसरा अभ्यास, प्रश्न 15 का उत्तर देखें

आदर्श हिंदी व्याकरण, पृष्ठ 117 – पृष्ठ के निचले भाग में संबोधन कारक के अंतर्गत बच्चो का प्रयोग देखें

सरल हिंदी व्याकरण, पृष्ठ 27 – इस पुस्तक की स्कैनिंग और OCR सही नहीं हुई है, पर नियम का विवरण स्पष्ट है

विशेष हिंदी व्याकरण, 7, पृष्ठ 93 – पृष्ठ 94 और 95 को भी देखें, नियम स्पष्ट है।

व्याकरण प्रदीप, पृष्ठ 62 – बहुवचन के अंतर्गत 1) 2) और 3) के नियमों को पढ़ें। वैसे इस पुस्तक में अन्यत्र कई जगह इसी नियम का उल्लंघन किया गया है।

कहना यह है कि किसी भी व्याकरण की पुस्तक को देखें तो नियम स्पष्ट है। हाँ कई जगह पर नियम का पालन नहीं हुआ है। यह नियम है, आग्रह नहीं। व्याकरण में आग्रह नहीं किए जाते। गूगल बुक्स पर संबोधन कारक पर खोज करेंगे तो ऐसी और कई पुस्तकें मिल जाएँगी। ये केवल कुछ ही उदाहरण हैं, एक search term के आधार पर। दुर्भाग्यवश कुछ पुस्तकों के केवल चयनित पृष्ठ उपलब्ध हैं, इस कारण चुनाव सीमित हो जाता है।

2) कुछ आधुनिक पुस्तकों और पत्रों में भी यह आग्रह (या नियम) इसके उद्गम, कारण, प्रचलन या परंपरा की पड़ताल किए बिना यथावत दोहरा दिया गया है।

व्याकरण के इसी नियम के उद्रगम और कारण के ऊपर प्रश्न क्यों उठ रहा है? हम अन्य नियमों के उद्गम और कारण तो नहीं पूछते। हम यह तो नहीं पूछते के “मुझे” क्यों सही है और “मेरे को” क्यों नहीं, या “आप क्या खाएँगे” क्यों सही है और “आप क्या खाओगे” क्यों नहीं — जबकि इन दोनों उदाहरणों में करोड़ों लोग “मेरे को” और “आप क्या खाओगे” का प्रयोग करते हैं। व्याकरण के किसी भी नियम के कारण और उद्गम का अध्ययन एक अलग विषय है और यह आम पुस्तकों और व्याकरण की पुस्तकों की परिधि में नहीं आता। जहाँ तक प्रचलन और परंपरा का प्रश्न है, अनुराग जी का अनुमान है कि यह नियम सर्वमान्य नहीं है, या इस नियम को न मानने वाले बहुलता में है। इससे मैं सहमत नहीं हूँ। मैंने इस नियम को लोगों से सुन कर ही सीखा है, न कि व्याकरण में पढ़ कर। सुनने में मैंने हमेशा ध्यान नहीं दिया कि कुछ लोग संबोधन में अनुस्वार का प्रयोग कर इस नियम का पालन नहीं करते इसलिए किसी का उच्चारण अखरा नहीं है, पर हाँ लिखने में कई बार दिख जाता है जिसे मैं लेखक की अनभिज्ञता समझता रहा हूँ। अब यह मानता हूँ कि इसे एक वैकल्पिक प्रयोग के रूप में मान्यता मिलनी चाहिए। पर मूल नियम पर ही प्रश्न उठाया जाए, इससे मैं कदापि सहमत नहीं हूँ।

3) हिन्दी व्याकरण की अधिसंख्य पुस्तकों में ऐसे किसी नियम का ज़िक्र नहीं है अर्थात बहुवचन के सामान्य स्वरूप (अनुस्वार सहित) का प्रयोग स्वीकार्य है।

इस बिंदु का उत्तर ऊपर 1) के अंतर्गत दिए गए उदाहरणों से दिया गया है। जिस भी व्याकरण की पुस्तक में बहुवचन संबोधन के रूप को समझाया गया है, वहाँ इस नियम को बताया गया है। कुछ जगह (अल्पसंख्य पुस्तकों) में अनुस्वार सहित संबोधन का प्रयोग हुआ है, पर कहीं पर भी नियम के रूप में यह नहीं बताया गया है कि अनुस्वार स्वीकार्य है या अनिवार्य है। यह नियम कई जगह स्पष्ट किया गया है कि संबोधन में अनुस्वार प्रयुक्त नहीं होना चाहिए।

4) जिन पुस्तकों में इस नियम का आग्रह है, वे भी इसके उद्गम, कारण और लाभ के बारे में मूक है।

ऊपर 2) के अंतर्गत उत्तर देखें। इन पुस्तकों में किसी भी नियम के उद्गम, कारण और लाभ नहीं बताए गए हैं। फिर इस नियम के ही उद्गम, कारण और लाभ क्यों बताए जाने की अपेक्षा है? अपने पूर्वाग्रह के कारण आप को लगता है कि इस नियम को विशेष रूप से जस्टिफाइ किए जाने की आवश्यकता है। पर यह नियम अन्य नियमों जैसा ही है। इसके अतरिक्त उपन्यासों, कहानियों की पुस्तकों में अधिकतर नियमानुसार प्रयोग मिलता है। किसी ऐसी पुस्तक में नियम का उद्गम, कारण या लाभ बताया जाए, यह तर्कसंगत नहीं है।

5) भारत सरकार के राजभाषा विभाग सहित अधिकांश प्रकाशन ऐसे किसी नियम या आग्रह का ज़िक्र नहीं करते हैं।

राजभाषा विभाग के प्रकाशनों में आम तौर पर व्याकरण के मूल नियमों का ज़िक्र नहीं होता। जब और नियमों का ज़िक्र नहीं तो इस नियम का क्यों? जहाँ विस्तृत व्याकरण की पुस्तक दिखे, और शब्दों के रूपों की तालिका विशेष रूप से दी गई हो, वहाँ वहुवचन संबोधन कारक का यही रूप समझाया गया होगा।

यहाँ से आगे मैं मूल लेख के बिंदुओं के क्रम और विवरण को कुछ कुछ अनदेखा कर रहा हूँ, पर उनके तर्क को नहीं।

6) 7) 8) 9) गीतों के विषय में…

मैं इस से काफी हद तक सहमत हूँ कि गीतों के उच्चारण कई बार ठीक नहीं सुनाई देते और विभिन्न गायक अलग अलग तरह से गाते हैं। मुझे यह भी लगता है कि हम गीतों में वही सुनते हैं जो सुनना चाहते हैं, पर फिर भी मुझे अधिकांश गीतों में नियमानुसार (बिना अनुस्वार के) ही संबोधन का उच्चारण सुनाई दिया है, चाहे वह लता का “ऐ मेरे वतन के लोगो हो..“, आशा का “लोगो, न मारो इसे..” हो, रफ़ी का “कर चले हम फ़िदा जानो-तन साथियो..” हो, अमिताभ का “मेरे पास आओ मेरे दोस्तो..” हो, अमित कुमार का “मेरी आवाज़ के दोस्तो..” हो, या उदित नारायण और चित्रा का “यारो सुन लो ज़रा..” हो। इसी तरह लता का “बहारो, मेरा जीवन भी सँवारो..” या रफ़ी का “बहारो फूल बरसाओ..” सुनें। सोच कर अनुस्वार रहित सुनने की कोशिश करें। गीत में अनुस्वार रहित, नियमानुसार उच्चारण सुनाई देगा। दरअसल कुछ गीतों में अनुस्वार आ जाएगा तो तुकबंदी (rhyme) भी समाप्त हो जाएगी। जैसे,

मेरे पास आ
मेरे दोस्तो
एक किस्सा सुनो
(यह केवल side observation है, नियम के पक्ष में तर्क नहीं)

“ऐ मेरे वतन के लोगो” यदि गूगल बुक्स में खोजेंगे तो छपी पुस्तकों में व्याकरणानुसार प्रयोग के अधिक उदाहरण मिलेंगे। अन्यथा वेब पर अनौपचारिक लेखन वाले लोग ज़्यादा हैं, जिनके लेखन की कोई गुणवत्ता नहीं परखता। छपी पुस्तकों में ऐसा नहीं है।

10) अनुस्वार हटाने से बने अवांछित परिणामों के कुछ उदाहरण

लोगो (logo) शब्द का अंग्रेजी में अलग अर्थ आता है, यह कोई कारण नहीं है कि हम व्याकरण के एक नियम को निरस्त कर दें। हिंदी भाषा के कम से कम दर्जनों ऐसे शब्द होंगे जिनके अंग्रेजी या अन्य भाषाओं में अलग अर्थ होंगे, उदाहरणतः काम (calm), कौन (con), बाल (bawl, ball), आदि। क्या हम इन शब्दों का प्रयोग भी छोड़ दें, या इन का रूप बदल दें? इस आधार पर किसी भाषा की शब्दावाली या व्याकरण में परिवर्तन नहीं किया जाता कि उस शब्द का अन्य भाषाओं में क्या अर्थ है।

ऐसे ही एक भाषा में भी एक शब्द के दो या तीन अर्थ हो सकते हैं। संदर्भ से सब समझ में आता है। नदी कल भी कल कल कर रही थी और कल भी कल कल करेगी। बताइए इसमें से कौन सा “कल” आपको असमंजस में डाल रहा है? इसी तरह “लोटो, यहाँ मत लोटो” जैसे वाक्यों से भी कोई कन्फ्यूजन नहीं होगा। एक शब्द के विभिन्न अर्थ होना आम बात है, और यह शब्दालंकार की श्रेणी में आता है। इससे वाक्य को समझने में कोई अंतर नहीं पड़ता। बल्कि जिसे इस नियम की आदत हो, उसे “लोटों..” कहना अटपटा लगेगा।

11) हाँ भारत सरकार की डाक टिकट पर “लोगों” लिखा होना एक बहुत बड़ी बात है, और यह बात यह दर्शाती है कि इस नियम का उल्लंघन मेरे अनुमान से कहीं अधिक होता है, जिस में न केवल आम हिंदी भाषी हैं, बल्कि सरकारी निज़ाम के लोग भी हैं। वैसे इस टिकट का जो ग्राफिक इंटरनेट पर उपलब्ध है, वह कुछ आधिकारिक नहीं लगता, कुछ philately साइट्स द्वारा बनाया लगता है। भारतीय डाक की वेबसाइट खोजने की कोशिश की तो वहाँ वही हाथ लगा जो सरकारी साइटों पर हाथ लगता है। अंडा

13) इस नियम के औचित्य पर कई सवाल उठाते हैं, यथा, “ऐ दिले नादां …” और “दिले नादां तुझे हुआ क्या है” जैसी रचनाओं में एकवचन में भी अनुस्वार हटाया नहीं जाता तो फिर जिस बहुवचन में अनुस्वार सदा होता है उससे हटाने का आग्रह क्योंकर हो?

नादां नादान शब्द का वैकल्पिक रूप है और फारसी से आया है। हर भाषा के अपने नियम होते हैं और इसका हिंदी व्याकरण से कोई संबंध नहीं है। आप यह मानकर क्यों चल रहे हैं कि हिंदी व्याकरण में बहुवचन का अनुस्वार “हटाया” जा रहा है? बात अनुस्वार हटाने की नहीं है, बल्कि संबोधन और संबोधन-रहित प्रयोग में शब्द के भिन्न रूप प्रयोग करने की बात है, जिस में कोई विस्मय की बात ही नहीं है। हिंदी की जननी संस्कृत में किसी भी शब्द के रूपों की तालिका को देख लीजिए (इस पृष्ठ पर), संबोधन कारक का अलग रूप होता है। नियम का औचित्य जानना होगा तो हर नियम का औचित्य जानना होगा।

14) अनुस्वार हटाकर बहुवचन का एक नया रूप बनाने के आग्रह को मैं हिन्दी के अथाह सागर का एक क्षेत्रीय रूपांतर मानता हूँ और अन्य अनेक स्थानीय व क्षेत्रीय रूपांतरों की तरह इसके आधार पर अन्य/भिन्न प्रचलित परम्पराओं को गलत ठहराए जाने का विरोधी हूँ।

एक उदाहरण देखा जाए तो आकारांत शब्द लोटा (या लड़का) का बहुवचन लोटों नहीं है। उसका बहुवचन लोटे है। जब साधारण कर्ता के रूप में इस शब्द का प्रयोग किया जाता है तो लिखा जाता है – लोटे लोट रहे हैं। क्या यह सही है? लोटे कब लोटे हैं? क्या यह सही है? इस में तो शब्द के repetition से कोई समस्या नहीं आई न?

जब इसी बहुवचन को oblique subject के रूप में प्रयोग किया जाता है तो उसमें ए के स्थान पर ओं की मात्रा जोड़ी जाती है। लोटों में पानी भरो।

जब इसी बहुवचन को संबोधन के रूप में प्रयोग किया जाता है तो उसमें ए के स्थान पर ओ की मात्रा जोड़ी जाती है। लोटो, तुम खाली कैसे हो गए?

संबोधन और oblique subject के लिए एक ही शब्द प्रयोग करने के आग्रह का भी तो कोई मूल होना चाहिए। हाँ, अंग्रेज़ी में इन तीनों के लिए एक ही शब्द का प्रयोग होगा। पर संस्कृत में संबोधन के लिए अलग रूप प्रयुक्त होता है। आप हिंदी व्याकरण की तुलना अंग्रेजी ग्रैमर से करना चाहेंगे, या संस्कृत व्याकरण से?

आप यदि इसे क्षेत्रीय रूपांतर मानते हैं तो आपकी इच्छा, पर यह नियम मुख्य धारा की हिंदी के व्याकरण का अंग है और इसे झुठलाया नहीं जा सकता।

अंत में यही कहना चाहूँगा कि यह नियम नियम है। न यह हानिकारक है, न औचित्य रहित, और न ही अल्प-प्रयुक्त। हाँ, भाषा स्थिर नहीं है, परिवर्तित होती रहती है, इस कारण यदि यह नियम धीरे धीरे समाप्त हो जाता है तो हो जाए। यदि अनुस्वार का प्रयोग आधिकारिक रूप से मान्य होता है तो हो जाए। पर लोगों की बहुत बड़ी संख्या का एक विशिष्ट प्रयोग व्याकरण के नियम को निरस्त नहीं करता। अंग्रेजी या हिंदी को मातृभाषा के रूप में प्रयोग करने वालों की यदि व्याकरण की परीक्षा ली जाए तो अधिकांश लोग ऊँचे अंकों से उत्तीर्ण नहीं होंगे। मातृभाषा बोलना एक बात है, और व्याकरण का पालन दूसरी। यदि बोलचाल की भाषा के आधार पर व्याकरण में परिवर्तन किए जाएँ तो हर साल नया व्याकरण लिखना पड़ेगा।


Viewing all articles
Browse latest Browse all 11

Latest Images





Latest Images